उर्दू शायरी में ‘आँसू’ : 1

तरुण प्रकाश श्रीवास्तव, सीनियर एग्जीक्यूटिव एडीटर-ICN ग्रुप 

हर ‘आँसू’ यानी ‘अश्क’ की अपनी ही कहानी है। चाहे खुशी हो या ग़म, आँसू अपनी दोस्ती हमेशा ही शिद्दत से निभाते हैं। सत्यता यह है कि आँसू के खारे पानी में वह आग है जो दिल पर जमी बर्फ़ को गला देती है और उसके बाद आदमी अपने-आप को हमेशा ही हल्का और तरोताज़ा महसूस करता है।

कभी-कभी तो आँसू भी घड़ियाली होते हैं जो दिल से नहीं, सिर्फ़ आँखों से बरसते हैं। आँसुओं की अपनी जु़बान है। ज़िंदगी के जितने फ़लसफ़े आँसू बयाँ कर देते हैं, उतने बयान की ताकत दुनिया के किसी क़लम‌ में नहीं है। आँसू हर किसी के पास होते हैं, बस फ़र्क इतना ही है कि कुछ आँखों के आँसू तब बरसते हैं जब कोई उनका मोल लगाने वाला होता है जबकि कुछ आँखों के आँसू बरसने के लिये तनहाई ढूढंते हैं।

उर्दू शायरी में आँसुओं की बड़ी क़द्र है। शायरी की तूलिका को आँसुओं में डुबोकर हज़ारों तस्वीरें बनाई गईं हैं और कुछ तस्वीरें तो इतनी बोलती हुईं हैं जो सीधे दिल में उतर जाती हैं और फिर आँसू बनकर आँखों से बरसने लगती हैं। अनेकों शायरों ने आँसुओं के हवाले से लाजवाब शेर कहे हैं। आज हम ‘आँसुओं की कहानी, शायरी की ज़ुबानी’ आपके साथ सुनना और समझना चाहते हैं। तो आइये, शायरी का यह दिलचस्प सफ़र शुरू करते हैं।

शेख़ क़ुद्रतुल्लाह क़ुदरत का जन्म वर्ष 1713 में हुआ था एवं उनका इंतक़ाल वर्ष 1790 या 1791 में दिल्ली में हुआ था। वे मुग़ल बादशाह शाह आलम द्वितीय के समय के शायर थे। आँसू खारे होते हैं। इसी हवाले से उनका यह शेर ग़ौर फ़रमायें – 

 

रख न आँसू से वस्ल की उम्मीद, 

खारे पानी से दाल गलती नहीं।”

 

मीर हसन का जन्म वर्ष 1717 में हुआ तथा उनकी मृत्यु वर्ष 1786 में हुई। उनकी सरज़मीं लखनऊ थी। वे अपने समय के प्रसिद्ध मर्सिया-निगार थे। उनकी मसनवी ‘सहर-उल-बयान’ भी उर्दू साहित्य में बहुत विख्यात है। आँसुओं बहुत क़ीमती होते हैं और वह बहुत खुशकिस्मत होता है जिसके लिये आँसू दिल से उठकर आँखों के रास्ते बरस पड़ते हैं। उनका क्या खूबसूरत शेर है यह –

 

और कुछ तोहफ़ा न था जो लाते हम तेरे नियाज़,

एक दो आँसू थे आँखों में सो भर लाएँ हैं हम।”

बुध सिंह ‘कलंदर’ मुग़लकालीन शायर थे। उनका हवाला मशहूर लेखक व इतिहासकार शम्सुर्रहमान फारुक़ी की पुस्तक ‘दि सन दैट रोज़ फ्राम दि अर्थ’ में मिलता है। आँसू पर उनका यह मशहूर शेर देखिये –

 

“थमते थमते थमेंगे आँसू,

रोना है  कुछ हँसी नहीं है।”

शेख़ इब्राहीम ‘ज़ौक़’ का जन्म वर्ष 1790 में हुआ और वर्ष 1854 में उनकी मृत्यु हुई। वे आखिरी मुग़ल बादशाह बहादुर शाह ‘ज़फ़र’ के उस्ताद थे और उन्हें राजकवि का ओहदा हासिल था। ‘लाई हयात आये, कज़ा ले चली चले; अपनी खुशी न अये, न अपनी खुशी चले” जैसी सदाबहार ग़ज़ल कहने वाले ‘ज़ौक’ का यह खूबसूरत शेर आँसू की बेवफ़ाई की पूरी दास्तान कहता है –

 

एक आँसू ने डुबोया मुझ को उन की बज़्म में,

बूँद भर पानी से सारी आबरू पानी हुई ।”

वज़ीर अली सबा लखनवी का जन्म वर्ष 1795 में हुआ था और वर्ष 1885 में उनका इंतक़ाल हुआ। कभी-कभी आँसू माज़ी की किसी तस्वीर से यादों के रास्ते अचानक‌ बहने लगते हैं। देखने वालों को तो उन आँसुओं का सबब भी पता नहीं होता। एक ऐसा ही शेर आपके हवाले –

 

“दिल में इक दर्द उठा आँखों में आँसू भर आए,

बैठे बैठे हमें क्या जानिए क्या याद आया ।”

मीर अनीस मुग़लकालीन शायर हैं। उनका जन्म लखनऊ में वर्ष 1803 में हुआ था और उनका इंतक़ाल वर्ष 1874 में हुआ। वे लखनऊ की शास्त्रीय शायरी के अग्रणी शायर थे और अपने मर्सिया लेखन के लिये विख्यात थे। अश्क पर उनका यह शेर अश्कों को कुछ अलग ही ढंग से देखता है –

 

अश्क-ए-ग़म दीदा-ए-पुर-नम से सँभाले न गए। 

ये वो बच्चे हैं जो माँ बाप से पाले न गए ।।”

 

लाला माधव राम जौहर का जन्म वर्ष 1810 में हुआ था और इंतक़ाल वर्ष 1890 में। वे मिर्ज़ा ग़ालिब के समकालीन थे। वे हर मौक़े पर याद आने वाले कई शेर देने वाले विख्यात शायर हैं। ‘भाँप ही लेंगे इशारा सर-ए-महफ़िल जो किया, ताड़ने वाले क़यामत की नज़र रखते हैं’ जैसे शेर उनकी क़लम से निकले जो आज मुहावरे की शक्ल ले चुके हैं। आँसू पर उनका एक खूबसूरत शेर देखिये –

 

थमे आँसू तो फिर तुम शौक़ से घर को चले जाना, 

कहाँ जाते हो इस तूफ़ान में पानी ज़रा ठहरे ।”

 

अमीर मीनाई का जन्म लखनऊ में 1829 में हुआ था और वर्ष 1900‌ में उनका निधन हैदराबाद में हुआ। वे उस्ताद शायर दाग़ देहलवी के समकालीन थे और अपनी ग़ज़ल ‘सरकती जाए है रुख़ से नक़ाब आहिस्ता आहिस्ता ‘ के लिए प्रसिद्ध हैं। आँसू पर उनका यह खूबसूरत शेर जो दिल के जलने के धुँयें को कारण समझता है –

 

समझता हूँ सबब काफ़िर तिरे आँसू निकलने का, 

धुआँ लगता है आँखों में किसी के दिल के जलने का।” 

जलील मानिकपूरी का जन्म वर्ष 1866 में हुआ था तथा उनका इंतक़ाल वर्ष 1946 में हैदराबाद में हुआ। वे भारत के सबसे लोकप्रिय उत्तर क्लासिकी शायरों में प्रमुख थे। वे अमीर मीनाई के शार्गिद तथा दाग़ देहलवी के बाद हैदराबाद के राज-कवि भी थे। आँसुओं को ज़ब्त कर लेना भी शान व महत्व की बात है। यही बात कहता है उनका यह प्यारा सा शेर –

 

“आँसू हमारे गिर गए उन की निगाह से,

इन मोतियों की अब कोई क़ीमत नहीं रही।”

 

और एक शेर यह भी –

 

“आँखों से कौन आ के इलाही निकल गया,

किसकी तलाश में मेरे अश्क-ए-रवाँ चले।”

नूह नारवी उस्ताद शायर दाग़ देहलवी के शागिर्द थे। उनका जन्म वर्ष 1878 में हुआ तथा मृत्यु वर्ष 1962 में हुई। वे अपनी बेबाकी के लिये मशहूर थे। उन्हीं आँसुओं की क़ीमत होती है जो टपकते नहीं हैं। क्या खूबसूरत शेर है उनका –

 

अश्कों के टपकने पर तस्दीक़ हुई उसकी,

बेशक वो नहीं उठते, आँखों से जो गिरते हैं।”

जोश मलसियानी वर्ष 1884 में जन्मे और उनकी मृत्यु वर्ष 1976 में हुई।  वे जालंधर से संबंध रखते थे। वे अविभाजित पंजाब के मशहूर शायर थे। भारत सरकार ने उन्हें पद्म श्री‌ की उपाधि से भी नवाज़ा है। आँसू पर उनका यह शेर आँसुओं की गहराई की पड़ताल करता है –

 

डूब जाते हैं उमीदों के सफ़ीने इस में,

मैं न मानूँगा कि आँसू है ज़रा सा पानी।”

जिगर मुरादाबादी का असली नाम अली सिकंदर था तथा उनका जन्म वर्ष 1890 में मुरादाबाद में हुआ था एवं वर्ष 1960 में उनका निधन हुआ। वे अपनी पीढ़ी के सर्वाधिक लोकप्रिय शायर थे। आँसुओं का एक रंग यह भी है जो उनके इस शेर में बयाँ हुआ है –

 

हसीं तेरी आँखें हसीं तेरे आँसू, 

यहीं डूब जाने को जी चाहता है।” 

 

और एक शेर यह भी –

 

मोहब्बत में इक ऐसा वक़्त भी दिल पर गुज़रता है,

कि आँसू ख़ुश्क हो जाते हैं तुग़्यानी नहीं जाती।”

फ़िराक़ गोरखपुरी का असली नाम रघुपति सहाय था। उनका जन्म वर्ष 1896 में हुआ था और वर्ष 1982 में उनका देहांत हुआ। वे जिगर मुरादाबादी व जोश मलिहाबादी जैसे शायरों के समकालीन थे। उर्दू शायरी अपने जिन रचनाकारों पर नाज़ कर सकती है, उसमें ‘फ़िराक’ का नाम पहली फ़ेहरिस्त में आता है। ‘फ़िराक़’ स्वयं में शायरी का एक स्कूल थे जिन्होंने उर्दू साहित्य को एक नयी दिशा और शैली दी। आँसू पर उनका एक खूबसूरत शेर देखिये –

 

फिर आज अश्क से आँखों में क्यूँ हैं आये हुये।

गुज़र गया है ज़माना तुझे भुलाये हुये।।”

जोश मलिहाबादी का जन्म वर्ष 1898 में हुआ और वर्ष 1982 में उनकी मृत्यु हुई। देश के विभाजन के बाद वे पाकिस्तान चले गये थे। उन्हें शायर-ए-इंक़लाब भी कहा जाता है। उनकी नज़्में उर्दू शायरी की बेहतरीन विरासत है। आँसू पर उनका यह खूबसूरत शेर देखिये –

 

तब्बसुम इक बड़ी दौलत है जिसका मैं भी क़ायल हूँ

मगर यह आँसुओं का एक शिरीन नाम है साक़ी।”

 

क्रमशः

Related posts